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यादों का कैनवास

Udai Shankar ka Hindi Sahitya
Udai Shankar ka Hindi Sahitya
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आज के बच्चे और उनका बचपन अपने स्मृतियों के खजाने में क्या संजो रहा होगा, कैसे संजो रहा होगा इसका अहसास हमें नहीं हो पता है | हम जब आज के परिवेश से अनमने होते हैं तो सुकून पाने के लिए अपने बचपन की यादों में सैर करने लगते हैं | आज का हमारा अनमना परिवेश भविष्य के प्रौढ़ों का सुकूनगाह होगा | हम अक्सर सोंचने लगते हैं कि आज तो ऐसा कुछ नहीं जो बालमन में संस्कारों की अमिट छाप छोड़े या उनके भविष्य में उसे स्मरणिये बनाये | मगर यह सच नहीं है | हमें अब ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि अब हमारे मन का कैनवास कोरा नहीं रह गया है | वह खुरदुरा हो गया है | नए नए रंग भरे हुए चित्र छप सकें इसकी कोई जगह ही नहीं बची है इस कैनवास में | हो सकता है अब भी बहुत कुछ छप रहा हो हमारे मन के कैनवास पर मगर अब उसे कुरेदने का समय ही कहाँ मिलने वाला है हमें | हमें तो जैसे ही आज कुछ खटकता है हम अपने स्मृति पटल के पुराने पन्ने पलटने लगते हैं |
आज जब बच्चे अटपटे पोस्टर खरीदते हैं तो दुकानों से भगवान के और महापुरुषों के कैलेंडर मांग कर इकट्ठे करने वाली बात अनायास याद आ जाती है | आज तक याद है कि ज्यादातर कैलेंडरों पर कलाकार योगेन्द्र रस्तोगी का अंग्रेजी में हस्ताक्षर बना होता था | हमेशा मोबाइल और नेट पर सक्रिय दिखने वाले बच्चों को देख कर पता ही नहीं चलता है कि वे ज्ञान बटोर रहे हैं या और कुछ | इन्हीं मौकों पर पर अनायास ही नंदन, पराग, बालभारती आदि पत्रिकाओं के अनेक अंक उनके मुखपृष्ठ सहित अन्तःपटल पर सजीव हो उठते हैं | सजीव हो उठती हैं पत्रिकाओं के नए अंक आने के अकुलाहट कि यादें | पोस्टमैन को बताशा खिला कर पानी जरूर पिलाते थे ताकि बुकपोस्ट से आने वाली पत्रिकाएं इधर उधर न हो जाएं | एक दूसरे से पत्र पत्रिकाओं का आदान प्रदान तथा उससे जुडी खट्टी मीठी यादें भी तो सजीव हो उठती हैं |
यह भी सच है कि यादें तो यह पीढ़ी भी अनायास ही संजो रही होगी जो उसके भविष्य कि धरोहर बनेगी | बदले हुए परिवेश कि यादें भी तो बदले हुए कलेवर में ही होंगी | उनकी यादें भी हम जैसी ही सोंधी और निर्मल होंगी इसपर तो संदेह शायद हर पीढ़ी को रहा होगा |
बच्चे तो आज भी अपनी माँओं के साथ मायक्रोबेव में कुछ न कुछ करते हुए दिखाई देते ही हैं | फिर क्यों हम अपनी यादों में जाकर चूल्हे के सामने पीढ़े पर बैठ जाते हैं | बनाने लगते हैं आटे कि चिड़िया और हठ करते हैं माँ से उसे तावे पर सेंकने की | माँ वह चिड़िया एक सींक में कोंच कर हमें पकड़ा देती थी | इन चिड़ियाओं का जुलूस बना कर हम भाई बहन आँगन में घूम-घूम कर जो खाते थे वह मिठास अब किसी पकवान में नहीं मिलती है | फिर सोंचता हूँ .. शायद कभी इनके माँ के केक की यादें इन्हें भी विचलित कर देंगी |
सुनियोजित यात्रायें और देश विदेश का भ्रमण उनके यादों की धरोहर तो अवश्य बनेगी | मगर हमारी यादें तो बैलगाड़ी यात्राओं में हिचकोले लेने लगती है | संगम मेले की वह चकाचौंध, चुटईया जलेबी की मिठास और कचालू का तीखापन आज के किसी भी टूअर पैकेज को मात दे देता है |
हमारा वह खपरैलों वाला स्कूल, वह तख्ती और बुत्का, पंडित जी की छड़ी, कृषिकार्य वाले पीरियड के मस्तियों की यादें… आज के स्कूली माहौल पर भारी पड़ते हैं | हम आज बच्चों को पढ़ते रहने की सलाह देते हैं | मगर हम तो पढाई से ज्यादा समय अपनी अपनी तख्तियां घुटारने और चमकाने की होड़ में लगा देते थे | तख्ती चमकाने के अनेकों नुस्खे इस्तेमाल किये जाते थे | खड़िया की चमक बढ़ाने के लिए मंत्रोचारण के साथ ही साथ सेंठे की कलम को मथनी की तरह बुटके में मथते थे |
ऐसा नहीं हैं कि हमने अपने बचपन में जो किया जो जिया वह सब बहुत गौरवशाली रहा हो या बहुत निम्न रहा हो | मगर वह जो भी था वह हमारा अविस्मरणीय बचपन था और उस कैनवास पर अब कोई और चित्र अपनी जगह नहीं ले सकेगा | उसी तरह आज के बच्चे भी जो कुछ कर रहे हैं या जो कुछ भी जी रहे हैं वह जरूरी नहीं कि सब उत्कृष्ठ या निम्न हो | मगर वह उनकी यादों के कैनवास पर छप रहा है जो उनकी धरोहर है |
(उदय शंकर श्रीवास्तव)
कटरा बाजार, गोंडा
उ.प्र. 271503
8126832288
udai.srivastava@rediffmail.com

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