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मन का पंछी विचरता है, ऊंची उड़ाने भरता है ।
भावों की भूंख मिटाने को, एक नई कविता बनाने को ।
क्या भावों का अकाल आ गया है ,
या भावों की फसल जानवर खा गया है ।
मगर भावों का समंदर उमड़ता है अपने ही अंदर ।
उन्हीं लहरों में गोते लगाना है और कविता बनाना है ।
उन भावों का क्या ?…
जो उठे थे घायल की अनदेखी कर धीरे से खिसक जाने के बाद,
जो उठे थे पहली बार गंगा नहाने के बाद,
जो उठे थे अम्मा की आसनी बिछाने के बाद,
जो उठे थे पिता जी को आंखे दिखाने के बाद,
जो उठे थे बच्चों को संस्कार की घुट्टी पिलाने के बाद,
जो उठे थे तिरंगा फहराने के बाद,
जो उठे थे उस डायरी को दीमक खा जाने के बाद,
जो उठे थे मुहल्ले में दहसत छा जाने के बाद ।
कुछ भाव मन को सहलाते हैं, कुछ जमीर को जागते हैं,
कुछ रुपहले सपने दिखाते हैं, कुछ बीते दिनों को चलचित्र सा चलाते हैं ।
भावों के इसी जखीरे से भूख मिटानी है ।
अब तो हर रोज नई कविता बनानी है ।
(उदय शंकर श्रीवास्तव)
कटरा बाजार, गोंडा
उ.प्र. 271503
8126832288
udai.srivastava@rediffmail.com
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